महाकवि कोकिल विद्यापति
मैथिल कवि कोकिल, रसासिद्ध कवि विद्यापति, तुलसी, सूर, कबूर, मीरा सभी से पहले के कवि हैं। अमीर खुसरो यद्यपि इनसे पहले हुए थे। इनका संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश एवं मातृ भाषा मैथिली पर समान अधिकार था। विद्यापति की रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट, एवं मैथिली तीनों में मिलती हैं।
देसिल वयना अर्थात् मैथिली में लिखे चंद पदावली कवि को अमरच्व प्रदान करने के लिए काफी है। मैथिली साहित्य में मध्यकाल के तोरणद्वार पर जिसका नाम स्वर्णाक्षर में अंकित है, वे हैं चौदहवीं शताब्दी के संघर्षपूर्ण वातावरण में उत्पन्न अपने युग का प्रतिनिधि मैथिली साहित्य-सागर का वाल्मीकि-कवि कोकिल विद्यापति ठाकुर। बहुमुखी प्रतिमा-सम्पन्न इस महाकवि के व्यक्तित्व में एक साथ चिन्तक, शास्रकार तथा साहित्य रसिक का अद्भुत समन्वय था। संस्कृत में रचित इनकी पुरुष परीक्षा, भू-परिक्रमा, लिखनावली, शैवसर्वश्वसार, शैवसर्वश्वसार प्रमाणभूत पुराण-संग्रह, गंगावाक्यावली, विभागसार, दानवाक्यावली, दुर्गाभक्तितरंगिणी, गयापतालक एवं वर्षकृत्य आदि ग्रन्थ जहाँ एक ओर इनके गहन पाण्डित्य के साथ इनके युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा स्वरुप का साक्षी है तो दूसरी तरफ कीर्तिलता, एवं कीर्तिपताका महाकवि के अवह भाषा पर सम्यक ज्ञान के सूचक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक साहित्यिक एवं भाषा सम्बन्धी महत्व रखनेवाला आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का अनुपम ग्रन्थ है। परन्तु विद्यापति के अक्षम कीर्ति का आधार, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, है मैथिली पदावली जिसमें राधा एवं कृष्ण का प्रेम प्रसंग सर्वप्रथम उत्तरभारत में गेय पद के रुप में प्रकाशित है। इनकी पदावली मिथिला के कवियों का आदर्श तो है ही, नेपाल का शासक, सामंत, कवि एवं नाटककार भी आदर्श बन उनसे मैथिली में रचना करवाने लगे बाद में बंगाल, असम तथा उड़ीसा के वैष्णभक्तों में भी नवीन प्रेरणा एवं नव भावधारा अपने मन में संचालित कर विद्यापति के अंदाज में ही पदावलियों का रचना करते रहे और विद्यापति के पदावलियों को मौखिक परम्परा से एक से दूसरे लोगों में प्रवाहित करते रहे।
महाकवि विद्यापति का जन्म वर्तमान मधुबनी जनपद के बिस्फी नामक गाँव में एक सभ्रान्त मैथिल ब्राह्मण गणपति ठाकुर (इनके पिता का नाम) के घर हुआ था। बाद में यसस्वी राजा शिवसिंह ने यह गाँव विद्यापति को दानस्वरुप दे दिया था। इस दानपत्र कि प्रतिलिपि आज भी विद्यापति के वंशजों के पास है जो आजकल सौराठ नामक गाँव में रहते हैं। उपलब्ध दस्तावेजों एवं पंजी-प्रबन्ध की सूचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाकवि अभिनव जयदेव विद्यापति का जन्म ऐसे यशस्वी मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जिस पर विद्या की देवी सरस्वती के साथ लक्ष्मी की भी असीम कृपा थी। इस विख्यात वंश में (विषयवार विसपी) एक-से-एक विद्धान्, शास्रज्ञ, धर्मशास्री एवं राजनीतिज्ञ हुए। महाकवि के वृहृप्रपितामह देवादिव्य कर्णाटवंशीय राजाओं के सन्धि, विग्रहिक थे तथा देवादिव्य के सात पुत्रों में से धीरेश्वर, गणेश्वर, वीरेश्वर
आदि महराज हरिसिंहदेव की मन्त्रिपरिषद् में थे। इनके पितामह जयदत्त ठाकुर एवं पिता गणपति ठाकुर राजपण्डित थे। इस तरह पाण्डिल्य एवं शास्रज्ञान कवि विद्यापति को सहज उत्तराधिकार में मिला था। अनेक शास्रीय विषयों पर कालजयी रचना का निर्माण करके विद्यापति ने अपने पूर्वजों की परम्परा को ही आगे बढ़ाया।
ऐसे किसी भी लिखित प्रमाण का अभाव है जिससे यह पता लगाया जा सके कि महाकवि कोकिल विद्यापति ठाकुर का जन्म कब हुआ था। यद्यपि महाकवि के एक पद से स्पष्ट होता है कि लक्ष्मण-संवत् २९३, शाके १३२४ अर्थात् मन् १४०२ ई. में देवसिंह की मृत्यु हुई और राजा शिवसिंह मिथिला नरेश बने। मिथिला में प्रचलित किंवदन्तियों के अनुसार उस समय राजा शिवसिंह की आयु ५० वर्ष की थी और कवि विद्यापति उनसे दो वर्ष बड़े, यानी ५२ वर्ष के थे। इस प्रकार १४०२-५२उ१३५० ई. में विद्यापति की जन्मतिथि मानी जा सकती है। लक्ष्मण-संवत् की प्रवर्त्तन तिथि के सम्बन्ध में विवाद है। कुछ लोगों ने सन् ११०९ ई. से, तो कुथ ने १११९ ई. से इसका प्रारंभ माना है। स्व. नगेन्द्रनाथ गुप्त ने लक्ष्मण-संवत् २९३ को १४१२ ई. मानकर विद्यापत् की जन्मतिथि १३६० ई. में मानी है। ग्रिपर्सन और महामहोपाध्याय उमेश मिश्र की भी यही मान्यता है। परन्तु श्रीब्रजनन्दन सहाय "ब्रजवल्लभ", श्रीराम वृक्ष बेनीपुरी, डॉ. सुभद्र झा आदि सन् १३५० ई. को उनका जन्मतिथि का वर्ष मानते हैं। डॉ. शिवप्रसाद के अनुसार "विद्यापति का जन्म सन् १३७४ ई. के आसपास संभव मालूम होता है।" अपने ग्रन्थ विद्यापति की भूमिका में एक ओर डॉ. विमानविहारी मजुमदार लिखते है कि "यह निश्चिततापूर्वक नहीं जाना जाता है कि विद्यापति का जन्म कब हुआ था और वे कितने दिन जीते रहे" (पृ। ४३) और दूसरी ओर अनुमान से सन् १३८० ई. के आस पास उनकी जन्मतिथि मानते हैं।
हालांकि जनश्रुति यह भी है कि विद्यापति राजा शिवसेंह से बहुत छोटे थे। एक किंवदन्ती के अनुसार बालक विद्यापति बचपन से तीव्र और कवि स्वभाव के थे। एक दिन जब ये आठ वर्ष के थे तब अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ शिवसेंह के राजदरबार में पहुँचे। राजा शिवसिंह के कहने पर इन्होने निम्नलिखित दे पंक्तियों का निर्माण किया:
पोखरि रजोखरि अरु सब पोखरा।
राजा शिवसिंह अरु सब छोकरा।।
यद्यपि महाकवि की बाल्यावस्था के बारे में विशेष जानकारी नहीं है। विद्यापति ने प्रसिद्ध हरिमिश्र से विद्या ग्रहण की थी। विख्यात नैयायिक जयदेव मिश्र उर्फ पक्षधर मिश्र इनके सहपाठी थे। जनश्रुतियों से ऐसा ज्ञात होता है।
जन्मतिथि की तरह महाकवि विद्यापति ठाकुर की मृत्यु के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है। इतना स्पष्ट है और जनश्रुतियाँ बताती है कि आधुनिक बेगूसराय जिला के मउबाजिदपुर (विद्यापतिनगर) के पास गंगातट पर महाकवि ने प्राण त्याग किया था। उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में यह पद जनसाधारण में आज भी प्रचलित है:
'विद्यापतिक आयु अवसान
कातिक धवल त्रयोदसि जान।'
यहाँ एक बात स्पषट करना अनिवार्य है। विद्यापति शिव एवं शक्ति दोनों के प्रबल भक्त थे। शक्ति के रुप में उन्होंने दुर्गा, काली, भैरवि, गंगा, गौरी आदि का वर्णन अपनी रचनाओं में यथेष्ठ किया है। मिथिला के लोगों में यह बात आज भी व्याप्त है कि जब महाकवि
विद्यापति काफी उम्र के होकर रुग्न हो गए तो अपने पुत्रों और परिजनों को बुलाकर यह आदेश दिया:
"अब मैं इस शरीर का त्याग करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं गंगा के किनारे गंगाजल को स्पर्श करता हुआ अपने दीर्ध जीवन का अन्तिम सांस लूं। अत: आप लोग मुझे गंगालाभ कराने की तैयारी में लग जाएं। कहरिया को बुलाकर उस पर बैठाकर आज ही हमें सिमरिया घाट (गंगातट) ले चलें।"
अब परिवार के लोगों ने महाकवि का आज्ञा का पालन करते हुए चार कहरियों को बुलाकर महाकवि के जीर्ण शरीर को पालकी में सुलाकर सिमरिया घाट गंगालाभ कराने के लिए चल पड़े - आगे-आगे कहरिया पालकी लेकर और पीछे-पीछे उनके सगे-सम्बन्धी। रात-भर चलते-चलते जब सूर्योदय हुआ तो विद्यापति ने पूछा: "भाई, मुझे यह तो बताओं कि गंगा और कितनी दूर है?"
"ठाकुरजी, करीब पौने दो कोस।" कहरियों ने जवाब दिया। इस पर आत्मविश्वास से भरे महाकवि यकाएक बोल उठे: "मेरी पालकी को यहीं रोक दो। गंगा यहीं आएंगी।"
"ठाकुरजी, ऐसा संभव नहीं है। गंगा यहाँ से पौने दो कोस की दूरी पर बह रही है। वह भला यहाँ कैसे आऐगी? आप थोड़ी धैर्य रक्खें। एक घंटे के अन्दर हम लोग सिमरिया घाट पहुँच जाएंगे।"
"नहीं-नहीं, पालकी रोके" महाकवि कहने लगे, "हमें और आगे जाने की जरुरत नहीं। गंगा यहीं आएगी। आगर एक बेटा जीवन के अन्तिम क्षण में अपनी माँ के दर्शन के लिए जीर्ण शरीर को लेकर इतने दूर से आ रहा है तो क्या गंगा माँ पौने दो कोस भी अपने बेटे से मिलने नहीं आ सकती? गंगा आएगी और जरुर आएगी।"
इतना कहकर महाकवि ध्यानमुद्रा में बैठ गए। पन्द्रह-बीस मिनट के अन्दर गंगा अपनी उफनती धारा के प्रवाह के साथ वहाँ पहुँच गयी। सभी लोग आश्चर्य में थे। महाकवि ने सर्वप्रथम गंगा को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया, फिर जल में प्रवेश कर निम्नलिखित गीत की रचना की:
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे।।
करनोरि बिलमओ बिमल तरंगे।
पुनि दरसन होए पुनमति गंगे।।
एक अपराध घमब मोर जानी।
परमल माए पाए तुम पानी।।
कि करब जप-तप जोग-धेआने।
जनम कृतारथ एकहि सनाने।।
भनई विद्यापति समदजों तोही।
अन्तकाल जनु बिसरह मोही।।
इस गंगा स्तुति का अर्थ कुछ इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:
"हे माँ पतित पावनि गंगे, तुम्हारे तट पर बैठकर मैंने संसार का अपूर्व सुख प्राप्त किया। तुम्हारा सामीप्य छोड़ते हुए अब आँखों से आँसू बह रहे हैं। निर्मल तरंगोवानी पूज्यमती गंगे! मैं कर जोड़ कर तुम्हारी विनती करता हूँ कि पुन: तुम्हारे दर्शन हों।"
ठमेरे एक अपराध को जानकर भी समा कर देना कि हे माँ! मैंने तुम्हें अपने पैरों से स्पर्श कर दिया। अब जप-तप, योग-ध्यान की क्या आवश्यकता? एक ही स्नान में मेरा जन्म कृतार्थ हो गया। विद्यापति तुमसे (बार-बार) निवेदन करते है कि मृत्यु के समय मुझे मत भूलना।"
इतना ही नहीं, कवि विद्यापति ने अपनी पुत्री दुल्लहि को सम्बोधित करते हुए गंगा नदी के तट पर एक और महत्वपूर्ण गीत का निर्माण किया। यह गीत कुछ इस प्रकार है:
दुल्लहि तोर कतय छथि माय।
कहुँन ओ आबथु एखन नहाय।।
वृथा बुझथु संसार-विलास।
पल-पल नाना भौतिक त्रास।।
माए-बाप जजों सद्गति पाब।
सन्नति काँ अनुपम सुख आब।।
विद्यापतिक आयु अवसान।
कार्तिक धबल त्रयोदसि जान।।
इसका सारांश यह है कि महाकवि वयोवद्ध हो चुके हैं। अपने जीवन का अंत नजदीक देखकर इस नश्वर शरीर का त्याग करने के पवित्र तट पर अपने सखा-सम्बन्धियों के साथ पहुँच गये हैं। पूज्यशलीला माँ गंगा अपने इस महान यशस्वी पुत्र को अंक में समेट लेने के लिए प्रस्तुत हो गई हैं। इसी क्षण महाकवि विद्यापति अपनी एकलौती पुत्री को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, अही दुलारि, तुम्हारी माँ कहाँ है.? कहो न कि अब जल्दी से स्नान करके चली आएं। भाई, देरी करने से भला क्या होगा? इस संसार के भोग-विलास आदि को व्यर्थ समझें। यहाँ पल-पल नाना प्रकार का भय, कष्ट आदि का आगमन होता रहता है। अगर माता-पिता को सद्गति मिल जाये तो उसके कुल और परिवार के लोगों को अनुपम सुख मिलना चाहिए। क्या तुम्हारी माँ नहीं जानती हैं जो आज जति पवित्र कार्तिक युक्त त्रयोदशी तिथि है। अब मेरे जीवन का अन्त निश्चित है।" इस तरह से गंगा के प्रति महाकवि ने अपनी अटूट श्रद्धा दिखाया। और इसके बाद ही उन्होंने जीवन का अन्तिम सांस इच्छानुसार गंगा के किनारे लिया।
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